Wednesday 21 March 2018

आज विश्‍व कविता दिवस पर विशेष...संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य के प्रस्‍तुतकर्ता कौन थे

आज विश्‍व कविता दिवस है परंतु क्‍या हम जानते हैं कि संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस लक्षण का विस्तार किया है।
आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।


आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण 
जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है।
 इसमें देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं।
शृंगार, वीर और शांत में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं। कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है। चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक उसका फल होता है। आरंभ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है।

कहीं खलों की निंदा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है। न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छंद में की जाती है और सर्ग के अंत में छंदपरिवर्तन होता है। कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं। सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रात:काल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए।

आचार्य विश्वनाथ का उपर्युक्त निरूपण महाकाव्य के स्वरूप की वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध परिभाषा प्रस्तुत करने के स्थान पर उसकी प्रमुख और गौण विशेषताओं का क्रमहीन विवरण उपस्थित करता है।

इसके आधार पर संस्कृत काव्यशास्त्र में उपलब्ध महाकाव्य के लक्षणों का सार इस प्रकार किया जा सकता है-

कथानक - महाकाव्य का कथानक ऐतिहासिक अथवा इतिहासाश्रित होना चाहिए।

विस्तार - कथानक का कलवेर जीवन के विविध रूपों एवं वर्णनों से समृद्ध होना चाहिए। ये वर्णन प्राकृतिक, सामाजिक और राजीतिक क्षेत्रों से इस प्रकार संबंद्ध होने चाहिए कि इनके माध्यम से मानव जीवन का पूर्ण चित्र उसके संपूर्ण वैभव, वैचित्र्य एवं विस्तार के साथ उपस्थित हो सके। इसीलिए उसका आयाम (अष्टाधिक सर्गों में) विस्तृत होना चाहिए।
विन्यास - कथानक की संघटना नाट्य संधियों के विधान से युक्त होनी चाहिए अर्थात् महाकाव्य के कथानक का विकास क्रमिक होना चाहिए। उसकी आधिकारिक कथा एवं अन्य प्रकरणों का पारस्परिक संबंध उपकार्य-उपकारक-भाव से होना चाहिए तथा इनमें औचित्यपूर्ण पूर्वापर अन्विति रहनी चाहिए।
नायक - महाकाव्य का नायक देवता या सदृश क्षत्रिय हो, जिसका चरित्र धीरोदात्त गुणों से समन्वित हो - अर्थात् वह महासत्त्व, अत्यंत गंभीर, क्षमावान् अविकत्थन, स्थिरचरित्र, निगूढ़, अहंकारवान् और दृढ़व्रत होना चाहिए। पात्र भी उसी के अनुरूप विशिष्ट व्यक्ति, राजपुत्र, मुनि आदि होने चाहिए।
रस - महाकाव्य में शृंगार, वीर, शांत एवं करुण में से किसी एक रस की स्थिति अंगी रूप में तथा अन्य रसों की अंग रूप में होती है।
फल - महाकाव्य सद्वृत होता है - अर्थात् उसकी प्रवृत्ति शिव एवं सत्य की ओर होती है और उसका उद्देश्य होता है चतुवर्ग की प्राप्ति।
शैली - शैली के संदर्भ में संस्कृत के आचार्यों ने प्राय: अत्यंत स्थूल रूढ़ियों का उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ एक ही छंद में सर्ग रचना तथा सर्गांत में छंदपरिवर्तन, अष्टाधिक सर्गों में विभाजन, नामकरण का आधार आदि। परंतु महाकाव्य के अन्य लक्षणों के आलोक में यह स्पष्ट ही है कि महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए। आचार्य भामह ने इस भाषा को सालंकार, अग्राम्य शब्दों से युक्त अर्थात् शिष्ट नागर भाषा कहा है।

-प्रस्‍तुति: विकीपीडिया व साहित्यदर्पण, परिच्छेद 6,315-324 के आधार पर

Thursday 15 March 2018

आज राही मासूम रजा की पुण्‍यतिथि है…

”कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता” के ये शब्‍द हमने रजा साहब का संस्‍मरण लेख से हिंदी समय से साभार लिया है
यहाँ (बंबई में) कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गए होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिए और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपए थे। तब कमलेश्वर ने ‘सारिका’ से, भारती ने ‘धर्मयुग’ से मुझे पैसे एडवांस दिलवाए और कृष्ण जी ने अपनी एक फिल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गईं। आज सोचता हूँ कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ.पी. टाँटिया और राजस्थान से मेरी एक मुँहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेहँदी रजा और दोस्त कुँवरपाल सिंह ने मदद की। कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता। और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आतीं पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।
जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं, पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूँ किया कि मैं यह भूल गया कि फिलहाल मैं बेरोजगार हूँ। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे, पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हूँ उससे बड़ा था। इसका किराया 600 दे रहा हूँ। उसका किराया केवल 150 रुपए माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिजर्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जाएँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डाँट पिलाई मैंने।
चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गए और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हम ने कमरे में दो गद्दे डाल दिए और वही दो गद्दोंवाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंग रूम बना… उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई, कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है… अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों कृष्ण चंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उन से मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं… कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न माँग बैठूँ।…
आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अँधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं, इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था… कि एक दिन सलमा आपा आ गईं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गईं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाए हुए आया। हमने उस तोहफे को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और कृष्ण जी को तकलीफ होती और हम उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहते थे।
साभार: हिंदी समय
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Wednesday 7 March 2018

आज अज्ञेय के जन्‍मदिन पर बावरा अहेरी सहित 3 कविताऐं

आज 7 मार्च, 1911 को कसया, उत्‍तरप्रदेश में अज्ञेय का जन्म हुआ, शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत-मौखिक परम्परा से हुआ 1915 से ’19 तक श्रीनगर और जम्मू में। यहीं पर संस्कृत पंडित से रघुवंश रामायण, हितोपदेश, फारसी मौलवी से शेख सादी और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा घर पर पढ़कर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को प्रेमचंद ने ‘अज्ञेय’ बनाकर हमारे लिए एक ऐसी साहित्‍यिक थाती सौंप दी जिसका आज भी कोई पूरी तरह विश्‍लेषण नहीं कर पाया।
दिल्ली में, 2 सितम्बर, 1951 को बावरा अहेरी उन्‍हीं की लिखी ऐसी कविता है जो सोचने पर विवश कर देती है कि  नाम बड़ा नहीं होता, बड़ी सोच होती है जो व्‍यक्‍ति को बड़ा बनाती है। ऐसे थे कवि अज्ञेय।
पढ़िए उनकी तीन कविताऐं
1. बावरा अहेरी
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !
बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे –
बावरे अहेरी
2. जो पुल बनाएंगे
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलाएँगे
3. मेरे देश की आँखें 
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं…
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं…
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें…
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं –
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें…
(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)
  • Legend News

Tuesday 6 March 2018

Gabriel García Márquez के जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी लिखी कहानी- ऐसे ही किसी दिन

गूगल ने आज कोलंबियाई मूल के लेखक Gabriel García Márquez की 91वीं जयंती पर डूडल बनाकर मशहूर हुए इस साहित्‍यकार को याद किया है।
गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की किताब ‘हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई और यह उनकी बेस्टसेलर में भी शामिल हुई। हिंदी में इसका अनुवाद ‘एकांत के सौ वर्ष’ शीर्षक से हुआ। ग्रैबियल की किताबों पर हॉलीवुड में कई फिल्में बनीं, लेकिन फिल्में उस तरह का जादू नहीं बिखेर सकीं, जिस तरह उन्होंने अपनी किताबों में उकेरा है। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिये जीवन और उससे जुड़े पहलुओं ,को बहुत ही खूबसूरती के साथ छुआ है।
गैब्रियल गार्सिया मार्खेज पत्रकारिता से शुरुआत करते हुए कहानियां, उपन्‍यास लिखे, 1982 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया था।
Gabriel García Márquez के बारे में जानिए-
गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ (6 मार्च 1927 – 17 अप्रैल 2014) नोबेल पुरस्कृत विश्वविख्यात साहित्यकार थे। १९५० में रोम और पेरिस में स्पेक्टेटर के संवाददाता रहे। १९५९ से १९६१ तक क्यूबा की संवाद एजेंसी के लिए हवाना और न्यूयार्क में काम किया। वामपंथी विचारधारा की ओर झुकाव के कारण उन पर अमेरिका और कोलम्बिया सरकारों द्वारा देश में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगया गया। उनका प्रथम कहानी-संग्रह लीफ स्टार्म एंड अदर स्टोरीज १९५५ में प्रकाशित: नो वन नाइट्, टु द कर्नल एंड अदर स्टोरीज और आइज़ ऑफ ए डॉग श्रेष्ठ कहानी संग्रह है। उनके उपन्यास सौ साल का एकांत (वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीच्यूड) को १९८२ में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। १७ अप्रैल २०१४ को ८७ वर्ष की आयु में मैक्सिको नगर में उनका निधन हो गया।
Márquez के जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी लिखी कहानी-
”ऐसे ही किसी दिन”
उस सोमवार की सुबह, गर्म और बिना बारिश वाली हुई। तड़के जागने वाले औरेलियो एस्कोवार ने, जो दाँतों का बिना डिग्री वाला डाक्टर था, अपना क्लीनिक छह बजे ही खोल दिया। उसने शीशे की आलमारी से नकली दाँत निकाले, जो अब भी खड़िया-मिट्टी के साँचे में जड़े हुए थे, और मुट्ठी भर औजारों को उनके आकार के क्रम में मेज पर यूँ सजा के रखा जैसे उनकी नुमाइश की जा रही हो। उसने बिना कालर वाली एक धारीदार कमीज पहन रखी थी जिसके बंद गले पर सुनहरा बटन था, और उसकी पैंट गेलिस से बँधी हुई थी। वह दुबला-पतला सींकिया इनसान था जिसकी निगाह कभी-कभार ही हालात के अनुरूप हो पाती थी, जैसा कि बहरे लोगों की निगाहों के मामले में होता है।
औजारों को मेज पर व्यवस्थित करने के बाद वह ड्रिल को कुर्सी के पास खींच लाया और नकली दाँतों को चमकाने बैठ गया। वह अपने काम के बारे में सोचता नहीं दिख रहा था, बल्कि, ड्रिल को अपने पैरों से चलाते हुए, तब भी जबकि उसकी जरूरत नहीं होती थी, वह निरंतर काम किए जा रहा था।
आठ बजे के बाद खिड़की से आसमान को देखने के इरादे से, वह थोड़ी देर के लिए रुका और उसने देखा कि दो विचारमग्न बाज बगल के मकान की शहतीर पर धूप ले रहे थे। वह इस खयाल के साथ फिर काम में जुट गया कि दोपहर के खाने के पहले फिर से बारिश होगी। अपने ग्यारह वर्षीय बेटे की तेज आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।
‘पापा।’
‘क्या है?’
‘मेयर पूछ रहे हैं कि क्या आप उनका दाँत निकाल देंगे।’
‘उससे बता दो कि मैं यहाँ नहीं हूँ।’
वह एक सोने का दाँत चमका रहा था। हाथ भर की दूरी पर ले जाकर उसने आँखें भींचकर दाँत को जाँचा-परखा। छोटे से वेटिंग रूम से फिर उसका बेटा चिल्लाया।
‘वो कह रहे हैं कि आप यहीं हैं, और यह भी कि वह आपकी आवाज सुन सकते हैं।’
दंतचिकित्सक ने दाँतों की जाँच-पड़ताल जारी रखी। उसे मेज पर बाकी चमकाए जा चुके दाँतों के साथ रखने के बाद ही वह बोला : ‘अच्छा है, सुनने दो उसे।’
वह फिर से ड्रिल चलाने लगा। उसने गत्ते के डिब्बे से, जहाँ कि वह ऐसी चीजें रखता था जिनपर काम करना बाकी है, कुछ दाँत निकाले और सोने को चमकाने में जुट गया।
‘पापा।’
‘क्या है ?’
उसने अब भी अपना हाव-भाव नहीं बदला था।
‘वह कह रहे हैं कि अगर आप उनका दाँत नहीं निकालेंगे तो वह आपको गोली मार देंगे।’
बिना हड़बड़ाए, बहुत स्थिर गति से उसने ड्रिल को पैडल मारना बंद किया, उसे कुर्सी से परे धकेला और मेज की निचली दराज को पूरा बाहर खींच लिया। उसमें एक रिवाल्वर पड़ी थी। ‘ठीक है,’ उसने कहा। ‘उससे कहो कि आकर मुझे गोली मार दे।’
उसने कुर्सी को घुमाकर दरवाजे के सामने कर लिया, उसका हाथ दराज के सिरे पर टिका हुआ था। मेयर दरवाजे पर नजर आया। उसने अपने चेहरे के बाईं तरफ तो दाढ़ी बनाई हुई थी, लेकिन दूसरी तरफ, सूजन और दर्द की वजह से पाँच दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी मौजूद थी। दंतचिकित्सक ने उसकी नीरस आँखों में कई रातों की नाउम्मीदी देखी। उसने अपने उँगली के पोरों से दराज को बंद कर धीरे से कहा :
‘बैठ जाओ।’
‘गुड मार्निंग,’ मेयर ने कहा।
‘मार्निंग,’ दंतचिकित्सक ने जवाब दिया।
जब औजार उबल रहे थे, मेयर ने अपना सर कुर्सी के सिरहाने पर टिका दिया और कुछ बेहतर महसूस करने लगा। उसकी साँसे सर्द थीं। यह एक घटिया क्लीनिक थी : एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी, पैर से चलने वाली एक ड्रिल, मिट्टी की शीशियों से भरी एक शीशे की आलमारी। कुर्सी के सामने एक खिड़की थी जिस पर कंधों की ऊँचाई तक के परदे पड़े हुए थे। जब उसने दंतचिकित्सक को आता हुआ महसूस किया, तो उसने अपनी एड़ी को कड़ा करके मुँह खोल दिया।
औरेलियो एस्कोवार ने अपना सर रोशनी की दिशा में घुमा लिया। संक्रमित दाँत के मुआयने के बाद उसने उँगलियों के सतर्क दबाव से मेयर का जबड़ा बंद कर दिया।
‘यह काम संवेदनशून्य किए बिना ही करना पड़ेगा,’ उसने कहा।
‘क्यों?’
‘क्योंकि अंदर एक घाव है।’
मेयर ने उसकी आँखों में देखा। ‘ठीक है,’ उसने कहा, और मुस्कराने की कोशिश की। दंतचिकित्सक जवाब में नहीं मुस्कराया। अब भी बिना किसी जल्दबाजी के वह, विसंक्रमित औजारों का पात्र, काम करने की मेज तक ले आया और उन्हें एक ठंडी चिमटी की सहायता से पानी से बाहर निकाला। फिर उसने पीकदान को जूते की नोक से धकेला और वाशबेसिन में हाथ धुलने के लिए गया। यह सब उसने मेयर की तरफ देखे बिना ही किया। लेकिन मेयर ने उस पर से अपनी नजरें नहीं हटाईं।
घाव अक्ल दाढ़ के निचले हिस्से में था। दंतचिकित्सक ने अपने पैर फैलाकर गर्म संडासी से दाँत को पकड़ लिया। मेयर ने कुर्सी के हत्थों को मजबूती से थाम लिया, अपनी पूरी ताकत से पैरों को कड़ा कर लिया और अपने गुर्दों में एक बर्फीला खालीपन महसूस किया मगर कोई आवाज नहीं निकाली। दंतचिकित्सक ने महज अपनी कलाई को हरकत दी। बिना किसी विद्वेष के, बल्कि एक कटु कोमलता के साथ, उसने कहा :
‘अब तुम हमारे बीस मारे गए लोगों की कीमत अदा करोगे।’
मेयर ने अपने जबड़े में हड्डियों की चरमराहट महसूस की, और उसकी आँखें आँसुओं से भर आईं। लेकिन उसने तब तक साँस नहीं लिया जब तक कि उसे दाँत निकलने का एहसास न हो गया। फिर उसने अपने आँसुओं के बीच से उसे देखा। उसके दर्द के चलते वह इतना पराया नजर आ रहा था कि वह अपनी पिछली पाँच रातों की यातना समझने में नाकाम रहा।
पीकदान पर झुके, पसीने से तर, हाँफते हुए उसने अपनी जैकेट की बटन खोली और पैंट की जेब से रूमाल निकालने को हुआ। दंतचिकित्सक ने उसे एक साफ़ कपड़ा दिया।
‘अपने आँसू पोंछ लो,’ उसने कहा।
मेयर ने ऐसा ही किया। वह काँप रहा था। जब दंतचिकित्सक अपने हाथ धुल रहा था, उसने जीर्ण-शीर्ण छत और धूल से अटे, मकड़ी के अंडों और मरे हुए कीड़े-मकोड़ों से भरे मकड़ी के जाले की तरफ देखा। अपने हाथ पोंछते हुए दंतचिकित्सक वापस लौटा। ‘जाकर सो जाओ,’ उसने कहा, ‘और नमक-पानी से गरारा कर लेना।’ मेयर उठ खड़ा हुआ और एक अनौपचारिक फौजी सलामी के साथ विदा लेकर, जैकेट की बटन बंद किए बिना ही, अपने पैर फैलाते, दरवाजे की ओर बढ़ चला।
‘बिल भेज देना,’ उसने कहा।
‘तुम्हारे या शहर के नाम?’
मेयर ने उसकी तरफ नहीं देखा। उसने दरवाजा बंद कर दिया और परदे के पीछे से कहा :
‘एक ही बात है।’

साभार: हिंदीसमय,
अनुवादक: मनोज पटेल

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